तानाशाही से मिली आज़ादी और लोकतांत्रिक सरकार को 70 साल पूरे होने को है। कहने को तो देश को चलाने वाली तमाम डोर आम जनता के हाथ में हैं, सरकार लोकतंत्र की है, किंतु हकीकत में सत्ता के सारे सूत्र सियासी बिसात पर खेल रही राजनैतिक पार्टियों के हाथों में हैं।
हाल ही में रिलीज़ हुई ‘ए गेम ऑफ बिहार सरकार’ में कोई नयापान नहीं था। हमेशा की तरह सरकार जीती, जनता हारी। सदियों से चले आ रहे इस गेम में सरकार की जीत हमेशा तय ही रहती है, जनता तो यदा-कदा ही जीतती रही है। यही हुआ इस गेम में भी। जो भी हुआ वह राजनैतिक उठापटक ही था। अपने फायदे-नुकसान को तोल-मोल कर परिदृश्य बनते और बिगड़ते रहे हैं। जनता जो ‘सो कॉल्ड’ इस देश की मालिक कहलाती है उसके हाथ में केवल झुनझुना है ‘वादे और नारे का’, जिसके बजने से वह खुश होती रहती है और गेम राजनैतिक पार्टियां खेल जाती हैं, इन सबके कोई मायने नहीं होते कि चुनाव (लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव) में किसने क्या कह कर वोट मांगे थे।
ऐसे खेल में जनता को 5 साल में शुरूआत भर करना होती है बाकि आगे सारे खेल राजनैतिक पार्टियां ही खेलती हैं। जनता दर्शक भर रहती है उसने गेम के शुरूआत में क्या चाहा या न चाहा, कोई मायने नहीं रहता। उसका पार्ट बस गेम की शुरूआत भर करना होता है। आगे का गेम भी राजनैतिक पार्टियांं का होता है और जीत भी उन्हीं की होती है। जनता को अंत में हारना भर होता है। शायद इसे ही लोकतंत्र का गेम कहते हैं। गेम के सारे सूत्र पहले भी जनता के हाथ में नहीं थे, आज भी नहीं है।
अंत में इस गेम को आप कितनी रेटिंग देते हैं ये आप जाने। मैं तो 0 (जीरो) से आगे नहीं बढ़ पा रहा हूं क्योंकि मुझे फिर भी यही लगता है ये देश है वीर जवानों का, जनता और किसानों का, युवा मस्तानों का…