संवाद से दूर युवाओ में बढ़ रही है हताशा
By Abhishek Mehrotra
‘I Quit’ फिल्म थ्री इडियट्स में यही दो शब्द दीवार पर लिखकर एक प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग संस्थान का होनहार छात्र खुदकुशी कर लेता है। वजह थी अपनी काबिलियत और संस्थान की अपेक्षाओं के बीच सामंजस्य न बैठा पाना और अपने पिता की उम्मीदों का बोझ न ढो पाना।
छात्रों की खुदकुशी की घटनाएं इस फिल्म के बहुत पहले से देखने में आ रही थीं और दुर्भाग्य है कि आज भी ये सिलसिला रुका नहीं है। तकरीबन हर बड़े संस्थान में बड़ी संख्या में किशोर और युवा आज ऐसे ही दबाव का सामना कर रहे हैं। उनमें से कई हालात के साथ जीना सीख जाते हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जो जिंदगी को अलविदा कह जाते हैं। हाल ही में आईआईटी जेईई उत्तीर्ण करने वाली कोटा में छात्रा कृति की खुदकुशी नए दर्दनाक उदाहरण हैं।
आईआईटी जैसे देश के प्रतिष्ठित तकनीकी संस्थान की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए राजस्थान का कोटा शहर अपने बेहतरीन कोचिंग संस्थानों के चलते देशभर में प्रसिद्ध है। लेकिन इस तस्वीर का स्याह पक्ष ये है कि इसी कोटा में पिछले दो-तीन साल में तकरीबन 75 छात्र खुदकुशी कर चुके हैं, इनमें से एक तिहाई ने तो 2015 में ही जान दी। खुदकुशी के ज्यादातर मामलों में वजह यही थी कि छात्रों पर अच्छे संस्थानों में दाखिले का बहुत ज्यादा दबाब था और वे अपने अभिभावकों की उम्मीदों पर खरे नही उतर पा रहे थे। हाल ये है कि कृति की खुदकुशी के बाद जिले के कलेक्टर ने यहां पढ़ रहे डेढ़ लाख छात्र-छात्राओं के परिजनों को भावुक पत्र लिखा है कि माता-पिता बच्चों पर अपनी इच्छाएं न थोपें।
वैसे छात्रों-किशोरों की खुदकुशी को महज कोटा का मसला मान लेना बड़ी भूल होगी। भारत में हर साल सवा लाख से ज्यादा लोग आत्महत्या करते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो(एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक साल 2013 में एक लाख 35 हजार तो 2014 में एक लाख 32 हजार लोगों ने खुद ही अपनी जान ले ली। खास बात ये है कि मरने वालों में सबसे ज्यादा तादाद उन युवाओं की है जिन्हें अक्सर भाषणों में देश का भविष्य कहा जाता है। ये आंकड़े भयावह हैं और इनकी भयावहता में इजाफा करती है इस मुद्दे पर समाज, सरकार और मीडिया की घातक चुप्पी। किसानों की खुदकुशी को छोड़ दिया जाए तो शायद ही कभी लगा हो कि साल में एक लाख 35 हजार मौतें हमारे लिए कोई मुद्दा है जिसप र हमें चिंता करनी चाहिए और जिसका हल खोजा जाना चाहिए।
15 से 29 साल की उम्र में खुदकुशी करने वालों की संख्या के लिहाज से भारत दुनिया के शीर्ष देशों में शुमार है। एनसीआरबी के मुताबिक 2014 में कुल 1 लाख 32 हजार में से 41 फीसदी आत्महत्या करने वाले 14 से 30 साल के थे। यहां तक कि 14 साल तक की उम्र के बच्चों में भी आत्महत्या की प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है और देश में रोजाना औसतन ऐसे आठ बच्चे आत्महत्या कर लेते हैं। जनसंख्या के आंकड़े बताते हैं कि 2010 से 2013 तक युवाओं में मौत का सबसे बड़ा कारण खुदकुशी ही रहा। खुदकुशी के मामले में चेन्नई, बैंगलुरू, दिल्ली और मुंबई जैसे शहर सबसे आगे रहे।
विशेषज्ञ मानते हैं कि टीवी-इंटरनेट आदि के चलते सूचनाओं का जो विस्फोट हुआ है उसकी वजह से बच्चे अपने आसपास के हालात से आज जल्दी अवगत हो जाते हैं। अक्सर कुछ बच्चे इन हालात से उपजे मानसिक दबाव को झेल नहीं पाते। स्कूलों में काउंसलरों की व्यवस्था नहीं होती, बाहर भी मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की तादाद कम है। मां-बाप के पास बच्चों के लिए समय कम है। ऐसे में बच्चों के पास अपनी भावनाएं व्यक्त करने के ज्यादा विकल्प नहीं होते। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने आदेश जारी किया था कि स्कूलों में टीचरों को काउंसलर की भूमिका भी निभानी होगी। सीबीएसई की गाइडलाइन के मुताबिक भी स्कूलों में फुल टाइम काउंसलर का होना जरूरी है लेकिन ज्यादातर स्कूलों में इसे लेकर जानलेवा लापरवाही बरती जाती है।
आज हर मां-बाप अपने बच्चे के करियर को लेकर चिंतित नजर आता है। कई बार ये चिंता सनक का रूप ले लेती है जिसका परिणाम होता है बच्चे पर ढेर सारी पाबंदियां और उम्मीदों का बोझ। कई माता-पिता अपने अधूरे सपनों की टोकरी बच्चों के नाजुक कंधों पर लाद देते हैं, बिना ये जाने कि उसकी इच्छाएं और जरूरतें क्या हैं। धीरे-धीरे मां-बाप के सपनों को बच्चा अपना सपना समझकर जीने लगता है और जब उसे इसमें नाकामी मिलती है तो एक तरह के अपराधबोध से घिर जाता है जो अंततः हताशा को जन्म देता है।
2010 में निम्हांस ने बेंगलुरू में 18-25 साल की 436 कॉलेज छात्रों के बीच एक अध्ययन में पाया उनमें से 15 प्रतिशत में खुदकुशी के प्रति एक रुझान था, नौ फीसदी ने इसकी कोशिश की थी और नौ फीसदी हताशा के शिकार थे। बच्चों ने तनाव की जो सबसे बड़ी वजह बताई वो पढ़ाई (62.7 फ़ीसदी) ही थी। उसके बाद पारिवारिक समस्याओं (25.4 फ़ीसदी) और दोस्तों से जुड़ी समस्याओं (11.8 फ़ीसदी) का जिक्र किया।
आज मां-बाप को जरूरत है कि वो जरूरी होने पर बच्चों को सपने दिखाएं लेकिन उन्हें नाकामी का सामना करना भी सिखाएं। ताकि जब कभी नाकामी, निराशा, तनाव या किसी अन्य समस्या के रूप में वे किसी विपरीत हालात से टकराएं तो वे बजाय मदद मांगने के आत्महत्या जैसा रास्ता न चुनें। संकट की स्थितियों में यदि बच्चे को परिवार अथवा दोस्तों का भावनात्मक सपोर्ट मिल जाए तो उसे हताशा से निकाला जा सकता है।
सोशल मीडिया के इस दौर में फेसबुक-ट्विटर जैसी साइट्स किशोरों के लिए एक बड़ा मंच बनकर उभरी हैं लेकिन इनके कुछ साइड इफैक्ट भी हैं। कनाडा में ओटावा पब्लिक हेल्थ के दो अध्ययनकर्ताओं ने एक शोध में पाया गया है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर ज्यादा वक्त बिताना किशोरों में आत्महत्या की भावना बढ़ाने वाले विचारों, मनोवैज्ञानिक परेशानियों और मानसिक विकारों के बढ़ने का खतरा पैदा करता है और यह उनके मानसिक स्वास्थ्य को भी खराब करता है। जरूरी है कि बच्चों के साथ संवाद बढ़ाया जाए फिर चाहे वो मां-बाप के स्तर पर हो या स्कूल में टीचरों के स्तर पर। सोशल मीडिया बच्चों को अपने दिल की बात कहने का एकमात्र जरिया न नजर आए।
दरअसल सोशल मीडिया पर ज्यादातर लोग एक आभासी जिंदगी जीते हैं। लोग खुद की दूसरों के सामने ऐसी छवि बनाकर रखते हैं जैसे उनकी लाइफ में सबकुछ मस्तीभरा और खुशनुमा है, फिर चाहे वो बेहतरीन बैकग्राउंड वाली सेल्फी हों या विद्वत्तापूर्ण स्टेटस। लेकिन हकीकत इससे अलग होती है। यही वजह है कि जब कोई व्यक्ति विफलता का सामना करता है और किसी मोड़ पर उसे खुद के कमजोर होने का अहसास होता है तो चाहकर भी सोशल मीडिया पर इसका जिक्र नहीं कर पाता। ऐसे में वहां के उसके दोस्तों से उसे वो सपोर्ट नहीं मिल पाता, जिसकी उसवक्त उसे जरूरत होती है। ऐसे वक्त में परिवार और दोस्त ही काम आ सकते हैं इसलिए उनका संवाद कायम रहना बहुत जरूरी है।