एक कहानी : इनकम टैक्स की रेड… (पार्ट-4)
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एक कहानी : इनकम टैक्स की रेड… (पार्ट-1)
एक कहानी : इनकम टैक्स की रेड… (पार्ट-2)
एक कहानी : इनकम टैक्स की रेड… (पार्ट-3)
राहुल मां और बहन को पिताजी के पास भेजकर फ़िर पिताजी के पास आ जाता है और देखता है कि आफ़िसर शर्मा जी से तरह-तरह के सवाल कर रहे थे किंतु उनके समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उसने पिताजी को कभी इतना परेशान नहीं देखा था और आज उन्हें परेशान देख राहुल का संयम जवाब दे रहा था। लेकिन अब उसे ऑफ़िसरों से भी काम निकलवाना था इसलिए वह बहुत ही अच्छे ढंग से पूछता है,
’’सर क्या मैं आपका ऑर्डर फ़िर से देख सकता हूं?’’
अच्छे तरीके से पूछने पर ऑफ़िसर भी थोड़ा नरम हो उसे ऑर्डर की कॉपी देखने के लिए दे देता है। आख़िर वह भी बहुत देर से शर्मा जी से बहस कर परेशान हो चुका था और नतीजा कुछ नहीं था। वह दादाजी को दिखाने का कह ऑर्डर की कॉपी को अंदर ले जाता है।
’’दादाजी देखिए तो पता नहीं ये पिताजी से इतनी बहस क्यों कर रहे हैं। वैसे नाम तो इस ऑर्डर में ठीक दिख रहा है किंतु पिता के नाम में ’वी’ लिखा है या ’बी’ ये कुछ ठीक नहीं लग रहा है।’’
दादाजी भी ध्यान से देखते हैं तो उनको भी कुछ शक होता है। वह उठते हैं और पोते राहुल को पास में आने का बोलते हैं।
’’बेटा मेरा हाथ पकड़कर मुझे उनके पास ले चल, मैं बात करता हूं उनसे।’’
राहुल उनको बाहर के कमरे में ले आता है। जैसे ही वो उस कमरे में प्रवेश करते हैं अचानक से सीनियर ऑफ़िसर चौरसिया की नज़र उन पर पड़ती है और वो चौंक उठते हैं।
’’अरे मास्टर जी आप? आप यहां? आपने मुझे पहचाना? मैं महेश चौरसिया।’’
मास्टर जी एक बार तो सोच में पड़ गए फिर थोड़ा याद करते हुए बोले, ’’हां, याद आया। तुम तो बहुत होनहार थे। क्लास में हमेशा अव्वल आते थे। अब इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में हो क्या?’’
चौरसिया : हां, मैं अब ऑफ़िसर हूं। मैं ही जांच करने यहां आया हूं। ये आपके बेटे हैं? (आश्चर्यचकित होकर)
मास्टर जी : हां ये मेरा बेटा अनूप है। किंतु ये भी मेरी तरह एकदम ईमानदार है। ये ऐसा-वैसा कुछ नहीं कर सकता है। जरूर कोई गलतफ़हमी हुई होगी।
अरे हां, गलतफ़हमी से याद आया कि ज़रा ये लैटर में देखना यहां ’वी’ लिखा है या ’बी’?
(चौरसिया ध्यान से देखते हुए) लग तो ’वी’ रहा है, फ़िर भी कन्फर्म कर लेता हूं।
चौरसिया जी फोन लगाकर कन्फर्म करते हैं तो ’बी’ शब्द से बलदेव नाम का पता चलता है।
जैसे ही वो नाम सुनता है ऑफ़िसर अपने सिर पर हाथ रख अपनी गलती का एहसास करता है।
’’अरे मास्टर जी आपका नाम तो विशम्भर दयाल है ना? किंतु यहां जो अनूप शर्मा हैं उनके पिता का नाम तो बलदेव है और ये भी इसी इलाके में रहते हैं। इसका मतलब तो ये कोई और ही है।’’
इतना सब सुनकर हमारे शर्मा जी ने बहुत सुकून की सांस ली और मन ही मन कहा :
’’थैंक गॉड! तुमने बचा लिया वरना मैंने तो सोच ही लिया था कि आज तो मैं गया। मेरी ज़िंदगी भर की कमाई इज्जत मिट्टी में मिल जाती। मैं किसी को मुंह दिखाने लायक ही नहीं रहता।’’
ऑफ़िसर चौरसिया कुछ सोच में पड़ जाते हैं, फ़िर वो पूछते हैं :
’’ये जो दूसरे जनाब अनूप शर्मा पिता बलदेव शर्मा हैं उन्होंने तो अभी-अभी नया बंगला बनाया है। पता लगा है बड़ा इन्वेस्टमेंट किया है। उसी की वजह से तो उनकी इन्क्वॉरी निकली है। फ़िर ये कहां हैं?
इतना सुन राहुल कह उठता है, ’’कहीं वो तो नहीं जो आगे चौराहे से लेफ्ट टर्न लेकर नया बंगला बना है, अभी कुछ ही दिन हुए हैं। बड़ा-सा गेट है, बस चौकीदार और उनके तीन कुत्तों के सिवाए कुछ दिखता ही नहीं। ऐसा लगता है जैसे वहां और कोई रहता ही नहीं।’’
चौरसिया जी अपनी टीम से कहते हैं, ’’चलिए ये तो तय हो गया कि ये वो अनूप शर्मा नहीं हैं, अब हमें जल्दी ही दूसरे शर्मा जी का पता लगाना है।’’
इतना चौरसिया जी का कहना होता है तो राहुल को याद आता है कि मुझे तो इन लोगों को यहां रोकना है। अभी तो हम टेंशन में थे किंतु अब हमें इस गलती को अपने लिए भुनाना है। अब समस्या ये है कि इन्हें कैसे रोका जाए। अभी तक तो ये खुद रुके थे किंतु अब बिना वजह के कैसे रोका जाए। नाश्ता तो मां लाती ही होंगी पर वो भी कुछ देर के लिए ही संभव है। राहुल अपने तिकड़मी दिमाग पर जोर मारता है जिसके लिए वह मशहूर और बदनाम भी है। कुछ देर में उसके दिमाग की बत्ती जल उठती है और वह दादाजी की तरफ़ देखता है। अब दादाजी ही इस काम को अंजाम दे सकते हैं क्योंकि पिताजी तो उसकी बात सुनेंगे नहीं। आगे की कहानी का पूरा सीन उसके दिमाग में घूम जाता है और सब कुछ ठीक लगने लगता है। आख़िर तिकड़मी दिमाग जो ठहरा उसका।
राहुल चौरसिया जी और उनके साथियों को नाश्ते के लिए कहता है तो वे सभी मना कर देते हैं और कहते हैं, ’’नहीं-नहीं हम ऑफ़िस के काम से निकले है, आपके यहां नाश्ता नहीं कर सकते हैं और हमें जल्दी से दूसरे शर्मा जी के यहां जाना है, अभी हम जल्दी में हैं।’’
किंतु राहुल को तो उनको अपने यहां रोकना था, वो उनको कैसे जाने दे सकता था। दादाजी कुछ कहते उसके पहले ही राहुल बोल पड़ा, ’’अरे आप कैसे जा सकते हैं बगैर नाश्ता करे? इतने साल बाद आप अपने मास्टर जी से मिले हैं, उनके घर आए हैं। अभी तक तो आप अपने ऑफ़िस के काम से यहां थे किंतु वह तो ख़त्म हो गया, अब तो आप पर्सनल काम से यहां हैं। अपने गुरु के यहां, बगैर स्वागत-सत्कार के आप यहां से जाएंगे तो हमारे दादाजी को भी अच्छा नहीं लगेगा।’’
दादाजी पहली बार अपने पोते राहुल की बात और उसकी समझदारी पर बड़े प्रसन्न हुए और उसकी बात का समर्थन कर उनको नाश्ते के लिए रोक लेते हैं। राहुल नाश्ता जल्दी लगाने का कह किचन में चला जाता है। उधर दादाजी और चौरसिया जी अपने स्कूल की बातों में खो जाते हैं।
अनु नाश्ता लेकर कमरे में प्रवेश करती है और नाश्ता लगाने लगती है। दादाजी उसका परिचय चौरसिया जी से कराते हैं और अनु को चौरसिया जी के बारे में बताते हैं। इधर राहुल आगे की कहानी का सीन बनाने के लिए मां से बात कर रहा होता है क्योंकि आगे की बात के लिए अफ़सरों को रोकने पहले दादाजी को मनाना पड़ेगा और उनको मां के अलावा और कोई मना नहीं सकता। मां ही पिताजी के बाद एक मात्र शख़्स हैं जिनकी बात दादाजी मानते हैं। मां अपना रोल समझ आवाज़ लगाती है, ’’पिता जी आप एक मिनिट अंदर आइए ना कुछ काम है आपसे। बेटा राहुल आप दो मिनिट बाहर गेस्ट के पास बैठ जाओ।’’
आगे राहुल आफ़िसर चौरसिया और उनकी टीम से क्या बात करता है, वो उसकी बात मानते हैं या नहीं? राहुल अपने मकसद में कामयाब होता है या नहीं? ये हम आपको बताएंगे आगे की कहानी में।
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