19 मिनट 5 सेकेंड की फिल्म है धोंडा। धोंडा यानी पत्थर। शेखर रणखाम्बे और संदीप मोटे ने मराठी भाषा में पत्थर को भगवान बनाने की राजनीति और फिर इस बात की ताकीद भी की है कि ईश्वर इंसानों के बीच ही कहीं होते हैं। महज 19 मिनट की इस पॉकेट फिल्म में एक बच्चे को केंद्र में रखकर उसकी नजर से एक पत्थर के मूर्ति बनने और फिर भगवान बन जाने की कहानी दिखाई गई है।
इस कहानी में बच्चे का ईश्वर से भरोसा ही उठ जाता है। अपने मां-बाप के कहने पर भी उस मूर्ति के सामने वह हाथ नहीं जोड़ पाता और सरपंच की वह बात भी सुन लेता है, जिसमें जगह खाली कराने और फिर यहां कब्जा कराने के लिए मंदिर की राजनीति की गई। दरअसल निर्देशक ने धर्म, ईश्वर, धर्म की राजनीति, मंदिर, आस्था, गरीबी, जाति और शिक्षा के एक पहलू को उजागर करने की कोशिश की है। और कहा जा सकता है कि धोंडा मराठी सिनेमा की इस नवीन विधा में अपने उद्देश्यों में सफल रहा है। एक बार जरूर देखिए गर आपको समाज को अबोध बच्चे की तरह समझना है, समाज का दोहरा चरित्र आपके मन में कड़वाहट भर देता है। यूट्यूब पर अब तक 50 हजार दर्शक मिले हैं धोंडा को।
धोंडा हाशिए पर खड़े उस समाज की कहानी नहीं है, जो अपने वजूद के लिए लड़ रहा है। यह कहानी उस समाज की है जिसने हाशिए पर रहने को अपनी नियती मान ली है, जो जीना चाहता है, जिंदा रहने के लिए तमाम झंझावातों से जूझता भी है, जीता भी है, लेकिन धर्म के सामने आते ही अपने सारे संघर्ष छोड़ देता है, क्योंकि सदियों से धर्म की अफीम उसे इतनी चखाई गई है कि अब उस समाज की हर पीढ़ी यह मान लेती है कि उसकी मुक्ति धर्म से ही होनी है। यह धर्म ही वह हथियार है जिससे इस संघर्षशील समाज को सदियों से हाशिए पर रखा जा सका और दिनों-दिन यह हथियार इतना मजबूत होता गया कि आज इसने इस समाज के आत्मविश्वास को ही लील लिया।
धर्म ने उसे यह दिलासा भी दिया कि कम से कम अगले जन्म में उसे इससे मुक्ति मिल जाएगी, बशर्ते इस जन्म में वे धर्म के पाखंडों और इश्वर पर सवाल न करे। धोंडा इस पर भी सवाल उठाता है, पर इस समाज में ही इसका जवाब ढूंढऩे की बजाय वापस उस समाज के उन लोगों का ही मुंह ताकता है, जो इस हाशिए पर खड़े इस समाज के शोषण को देख और समझ रहे हैं साथ ही उसे खत्म भी करना चाहते हैं, अपनी छोटी-छोटी कोशिशों से।
लेखक
सुधीर सिंह