सिनेमा का कॉमन मैन बनकर लोगों का दिल जीतते थे फारूख साहब
किस किस तरह से मुझको ना रूसवा किया गया
गैरों का नाम मेरे लहु से लिखा गया।
क्यों आज उसका जिक्र मुझे खुश ना कर सका
क्यों आज उसका नाम मेरा दिल दुखा गया।
ये चंद अल्फाज है उस हीरो की रूह से निकले जो इस तरह से एक्टर करता था कि कुछ बनावटी नहीं लगता था। इनकी फिल्में देखकर लगता था कि मानों ये हम ही हो, जो दिखाया जा रहा है वो सब हमारे आस-पास ही हो रहा हो। किरदार कितना भी संजीदा क्यों ना हो इतनी आसानी से ये हमारे सामने प्रस्तुत करते थे मानों कि सबकुछ हमारे सामने ही हो रहा हो।
उनकी किस किस फिल्म की बात करें। कोई भी फिल्म ऐसी नहीं, जिसमें लगता हो कि उन्होंने अभिनय किया है। हर फिल्म में किरदार को इस सहजता से जिया कि हैरत होती है। हिंदी सिनेमा का वो आम आदमी यानी फ़ारूख शेख अब हमारे बीच नहीं है, लेकिन उन्हें याद करने वालों की सूची बहुत लंबी है।
गर्म हवा, शतरंज के खिलाड़ी, गमन, नूरी, चश्मे बद्दूर, कथा, बाजार, उमराव जान सहित फारूख शेख की तमाम फिल्में याद दिलाती हैं कि बिना चीखे चिल्लाए भी गुस्से को व्यक्त किया जा सकता है। बिना नाटकीय हुए असली जीवन की तरह रोमांस किया जा सकता है। बिना डायलागबाजी के भी बात को प्रभावशाली ढंग से रखा जा सकता है। सातवें और आठवें दशक में अमोल पालेकर के अलावा फारूख शेख ही इकलौते ऐसे कलाकार थे जो परदे पर भी आम लोगों की तरह ही लगते थे।
वकील बनना चाहते थे
बड़ौदे पास के एक जमींदार परिवार में 25 मार्च 1948 को जन्मे फारूख शेख के पिता मुस्तफा शेख मुंबई में वकील थे। पांच भाई बहनों में सबसे बड़े फारूख ने अपनी शिक्षा मुंबई में ही पूरी की पिता को देखकर ही उन्होंने वकील बनने का फैसला किया। कॉलेज के दिनों से ही फारूख नाटकों में शौकिया तौर पर हिस्सा लेने लगे। शोक बढ़ा तो वो इंडियन पीपुल्स थिएटर से जुड़ गए वहां सागर सरहदी, एम सथ्यू और रमेश तलवार जेसे रंगकर्मियों से मुलाकात हुई। फारूख पढ़ाई के साथ-साथ नाटक भी करते रहे, लेकिन ये सब उनके लिये शौक को पूरा करना भर था। उन्होंने ना तो किसी से एक्टिंग सीखी और ना ही ट्रेनिंग ली।
ऐसे मिला पहला रोल
फारूख के मन में कभी भी ये बात नहीं आयी कि उन्हें फिल्मों में काम करना है। यह तो भाग्य था जो उन्हें रूपहले पर्दे तक ले गया। और ये फारूख की काबलियत थी कि उन्होंने रूपहले पर्दे पर आशियाना बना लिया। फारुख के इप्टा से जुड़ने के दौरान एम एम सथ्यू ने फिल्म गर्म हवा की योजना बनायी इसमें फारूख को भी एक रोल दिया गया। रोल बहुत छोटा सा था, लेकिन दो बड़े फिल्मकारों की नजर छोटा सा रोल निभाने वाले मासूम और ताजा चेहरे वाले फारूख शेख पर पड़ी। पहला बुलावा मिला सत्यजीत रे से फिल्म शतरंज के खिलाड़ी के लिये और दूसरा बुलावा आया मुज़फ्फर अली के ओर से फिल्म गमन के लिये। इन फिल्मों ने फारूख के शानदार प्रदर्शन को स्थापित कर दिया। दर्शकों को फारूख के रूप में पड़ोस में रहने वाले भोले भाले इंसान का ऐसा रूप दिखा जिसे उन्होंने दिल में बिठा लिया।
नूरी बनी पहली हिट फिल्म
अब तक फारूख की पहचान तो बन चुकी थी, लेकिन फिल्मी शब्दावली में उनके खाते में एक भी हिट फिल्म नहीं थी। और हिट का कारनामा अंजाम दिया गया 1978 में आयी फिल्म नूरी से। नूरी के सुपर हिट होने के बाद उनके पास उसी तरह के रोल के करीब 40 प्रस्ताव आए, लेकिन फारूख ने एक भी स्वीकार नहीं किया। क्योंकि वो अपने को दोहराने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन फिल्मी दुनिया के फॉर्मूले के मुताबिक फारूख ने बहुत बड़ी गलती की। फिल्मी दुनिया में हिट घोड़े पर दांव लगाने वाले बहुत होते हैं, लेकिन जरूरी नहीं की सिर्फ दमदार अभिनेता के नाम पर कोई प्रोड्यूसर पैसा लगाने पर तैयार हो जाए।
चश्मेबद्दूर ने बनाई नई पहचान
फिर हुआ यह कि फारूख के पास कोई फिल्म नहीं रही। इस बात का फारूख को मलाल रहा कि वो स्टारडम की बुलंदियों को छू नहीं पाए लेकिन इसके लिये वो खुद को कम फिल्मी दुनिया के चलन को ज्यादा जिम्मेदार मानते थे। जब फारुख को फिल्में मिलना कम हुईं तो उन्होंने फिल्म हासिल करने के लिए जी-तोड़ कोशिश भी नहीं की क्योंकि स्वभाव से आराम तलब और शांत फारूख को परिवार और मंच से जो संस्कार मिले थे वो फिल्मों की ग्लैमर भरी दुनिया से मेल नहीं खाते थे। इसके अलावा फिल्म करना फारूख का एक शौक था। एक ऐसा शौक जिसके बदले में उन्हें पैसे भी मिलते थे। फिल्म करना उनके लिये जुनून कभी नहीं बना। करीब दो साल तक फारूख ने केवल नाटक किये । फिर एक दिन सई परांजपे ने उन्हें फिल्म चश्मेबद्दूर का प्रस्ताव भेजा। फारूख को फिल्म की कहानी और सई की सोच ने बहुत प्रभावित किया। उन्होंने चश्मेबद्दूर की और उनकी गाड़ी फिर फिल्मों की पटरी पर लौट आयी।
उस समय तक हिंदी फिल्मों में बढ़ रही हिंसा और अति नाटकीयता पराकाष्ठा पर पहुंच गयी थी। फिल्म संगीत भी बुरे दौर से गुजर रहा था। ऐसे में ताज़गी भरे चेहरे वाले सामान्य बातें और हरकतें करने वाले फारूख शेख की मजबूत पहचान बन गयी। चश्मेबद्दूर एक ऐसी फिल्म थी, जिसमें एक मध्यवर्गीय आम आदमी के रूप में दर्शक उन्हें अपनी ज़िंदगी से जोड़ कर देखने लगे। उनकी इस छवि को फिल्म कथा और रंगबिंरगी ने और मजबूत किया। साथ ही फारूख शेख और दीप्ति नवल की जोड़ी को दर्शकों ने दिल से सराहा। इस जोड़ी ने 13 फिल्मों में एक साथ काम किया।
संजीदगी से निभाए सभी किरदार
फारूख ने बिना चीखे चिल्लाए और घूंसा लात चलाए भी गुस्से को पर्दे पर बखूबी व्यक्त किया। उन्होंने अपने अभिनय के कई शेड पेश किये, माया मेम साहब का सीधा साधा और हमेशा काम में व्यस्त रहने वाला पति हो या फिर शांघाई का भ्रष्ट अफसर। फारूख हर किरदार को दिल से जीते थे। 90 का दशक आते-आते सामान्तर सिनेमा की सांस फूलने लगी थी। फारूक शेख और अमोल पालेकर जैसे मध्यवर्गीय दर्शकों के पसंदीदा अभिनेताओं के पास फिल्मों के प्रस्ताव ना के बराबर रह गए थे। ऐसे में फारूख ने नाटकों के साथ-साथ टीवी का रूख किया। श्रीकांत, कश्मीर, जी मंत्री जी और जीना इसी का नाम जैसे शोज के दम पर फारूख ने छोटे पर्दे पर भी अपनी श्रेष्ठता साबित की। जीना इसी का नाम है भारत में अपनी तरह का पहला टॉक शो था, जिसकी नकल करके कई टीवी शो लोकप्रियता हासिल कर चुके हैं ।
फारूख जिस तरह आम आदमी के प्यार को पर्दे पर सहजता से पेश करते थे निजी ज़िंदगी में भी उसी सहजता से अपने कॉलेज की रूपा जैन से प्यार किया और फिर शादी कर ली। फारूख की दो बेटियां हैं, जिन्हें फिल्मों से सिर्फ उन्हें देखने तक की दिलचस्पी है। चालीस साल के फिल्मी सफर में लगभग 40 फिल्में करने वाले फारूख उस वक्त दुबई में थे जब उन्हें दिल का दौरा पड़ा। और देखते ही देखते फिल्मी पर्दे और निजी जीवन का भी बेहद शरीफ इंसान और अदाकार दुनिया को अलविदा कह गया।
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