आज़ादी का मुँह और संवेदना के कान
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बुलंदशहर में दुष्कर्म की घटना के संबंध में उत्तर प्रदेश के शहरी विकास मंत्री आज़म खान के बयान पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी कई मायनों में महत्वपूर्ण है। जस्टिस सी नागप्पन की बेंच ने पूछा कि – क्या खान की इस टिप्पणी को भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता माना जाये? या समझें कि संविधान में इस अधिकार के लिए दिये गये सिद्धांत विफल सिद्ध हुए हैं? आपको याद होगा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर पिछले कुछ समय में कितना राजनीतिक ड्रामा हो चुका है। अब एक बार फिर यह मुद्दा सुर्खियों में आया है।
अपनी खोयी भैंस को तलाशने के लिए पुलिस महकमे को दौड़ाने वाले आज़म खान ने सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी के बाद अपने बयान को जायज़ ठहराया है। क्या आप मान सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस को जिस बात पर आपत्ति लेते हुए यह टिप्पणी करना पड़ी, उसे आज़म खान का आपत्तिजनक न मानना वाजिब हो सकता है? विचित्र स्थितियां हैं। यदि सिर्फ नेताओं की बात करें तो पिछले एक महीने के अखबार उठाकर देखिए कि चुने हुए, जनभावना को आवाज़ देने के लिए संसद और विधानसभाओं में भेजे गए इन राजनीतिज्ञों ने अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार का कितना दुरुपयोग किया है।
बावजूद इसके, मजाल है किसी की कि किसी पर कोई उल्लेखनीय कार्रवाई हुई हो। सही मायनों में हमारे देश में आज़ादी राजनीति में कुछ रसूख या असर रखने वालों को ही है। अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार का उपयोग करने वाले पत्रकार, लेखक और कलाकार मारे जाते हैं या धमकियों भरे माहौल में जीते हैं लेकिन राजनीति में दमखम रखने वाले तो अपनी हर तरह की भावना, विचार को अभिव्यक्त करने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र हैं। ताज़ा घटना में एक आईएएस अफसर को भी अपने विचार को अभिव्यक्त करना महंगा पड़ा है।
हालिया घटनाक्रम में नरसिंहपुर के कलेक्टर रहे सिबि चक्रवर्ती ने जब कहा कि बुद्धिजीवियों ने आईएएस के बजाय भ्रष्टाचार से घृणा की होती तो भ्रष्टाचार अब तक खत्म हो चुका होता। उनका यह बयान कइयों के गले नहीं उतर रहा है और माना जा रहा है कि उन्हें इस बयान की और कीमत चुकाना पड़ सकती है। पहले भी ऐसे उदाहरण रहे हैं जब सरकारी अफसरों को किसी बयान के कारण तबादले या लूपलाइन में डाले जाने की कार्रवाई हुई है। मतलब यह कि देश में जंगल राज चल रहा है। जिसके पास ज़्यादा ताकत है, वह अपने से कमज़ोर को किसी भी समय, किसी भी कारण से प्रताड़ित कर सकता है।
हमारी न्यायिक व्यवस्था राजनीति के सामने किस तरह घुटने टेक देती है, इसके प्रमाण देने की ज़रूरत नहीं है। आप जानते ही हैं कि कई दबंगों के प्रकरण सालों-साल किसी नतीजे पर नहीं पहुंचते और सालों में फैसले आते हैं तो वे दबंग बाइज़्ज़त बरी हो जाते हैं, अधिकांश राजनीतिक दोषी करार नहीं दिये जा पाते… ऐसे तमाम किस्सों से आप वाकिफ हैं और आप यह भी पढ़ चुके हैं कि हमारे देश के मुख्य न्यायाधीश यानी सीजेआई रो भी चुके हैं। तमाम घटनाओं के बावजूद, हालात बद से बदतर हो रहे हैं और किसी किस्म का पुरज़ोर विरोध कहीं दर्ज नहीं हो रहा। नाकामी यह है।
रही बात, अभिव्यक्ति की आज़ादी या अधिकार की तो इन दिनों सोशल मीडिया इस अधिकार का दोहन करने वालों का बड़ा केंद्र बना हुआ है। इस अधिकार के नाम पर जिसके मन में जो आ रहा है, बिना कहे रह नहीं पा रहा। यह विचारणीय है कि शब्दों के विस्फोट के इस समय में शब्द अपना अर्थ लगभग खो चुके हैं, लेकिन चिंता का विषय यह है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार क्या बकवास करते जाने का हथियार बनकर रह गया है? क्या यह अधिकार चुटकुला बन गया है या हादसा? जस्टिस नागप्पन की टिप्पणी पर फिर गौर कीजिए। क्या इस अधिकार के सिद्धांत विफल साबित हुए हैं? वास्तव में, सार्थक विमर्श की मांग करने वाला प्रश्न है।
रेडियो पर एफएम जॉकियों की दिन रात की निरर्थक बकवास, समाचार चैनलों पर चर्चा और खबरों के प्रस्तुतिकरण के नाम पर शब्दों की फिज़ूलखर्ची और अनर्गल प्रलाप, मनोरंजन चैनलों पर गॉसिपों की न रुकने वाली बड़बड़, फिल्मों और टीवी पर मनोरंजन के नाम पर परोसी जा रही फूहड़ता, अश्लीलता या अनुपयोगी सामग्री, अखबारों में छप रहीं झूठी, बनावटी या बनायी हुई खबरें, सोशल वेबसाइटों पर आ रहे निराधार बयान, कमेंट आदि यह सब कुछ कहीं न कहीं इसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के दोहन के नाम पर जारी है और इस पर कोई लगाम नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस की पीड़ा को देश के बुद्धिजीवी समझें और थिंकटैंक विचार करे कि कहां, कितना नियंत्रण होना चाहिए ताकि लगातार बकवास का यह शोर थम सके। बहुत बोलना या सिर्फ बोलते जाना बहरे होने का प्रमाण है और अकर्मण्य बने रहने का बहाना। इस रोग का उपचार जितनी जल्दी हो सके, किया जाना हमारे हित में है।
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