विचारधाराओं के आतंकवाद का समय
मेरे कुछ वामपन्थी या वामपन्थ समर्थक मित्र कन्हैया को सही ठहराकर उसके पक्ष में ऐसी दलीलें दे रहे हैं कि उनके साथ तर्क कर पाना उतना ही कठिन है जितना कुत्ते की पूंछ को सीधा कर पाना। कुछ स्वयं को राष्ट्रवादी विचारधारा के पोषक मानने वाले मित्र हैं, जिनका मत है कि कन्हैया एक भटका हुआ युवा है और उसे तत्काल चुप करा देना चाहिए। इनके साथ भी पूरे सच पर बात करना उतना ही जोखिम भरा है जितना हिटलर के सामने जय हिटलर न कहना! कन्हैया कौन है? क्या है? क्यों है? यहां इस मसअले पर नहीं बल्कि इस मामले के ज़रिये सोच के एक स्तर पर बात करते हैं।
वास्तव में, हमारे पैरों तले अविश्वास की चिनगारी रख दी गयी है। मजबूर हम इतने हैं कि इसी चिनगारी पर चलने के सिवाय कोई और चारा नहीं है। एक तरफ लगता है कि यह सही है तो दूसरे ही क्षण लगता है कि वह सही है। ऐसे में होता यही है कि सत्य ओझल हो जाता है और हम अपने विश्वास के आधार पर किसी एक को सही मानने लगते हैं। और उस विश्वास के आधार पर, जिसका आधार ठोस नहीं है। हम अपने देश और अपने विश्व में कैसी परिस्थितियां बना बैठे हैं? सोचकर ही अफ़सोस से ज़्यादा डर लगता है।
ऐसे में, मुझ पर एक बोझिल दबाव बना हुआ है, कि मैं अपनी प्रतिबद्धता किसी एक विचारधारा के पक्ष में स्पष्ट करूं। यह धर्मसंकट मेरा ही नहीं, संभवतः अनेक का हो सकता है जो यह मानते हों कि उनके पास दो हाथ हैं, एक वाम और एक दक्षिण यानी लेफ्ट और राइट। एक नहीं, दो आंखें हैं और एक दिल है, जो मनुष्य के कल्याण के लिए दुआ करता है और एक मन भी है जो सच के लिए, सच के अस्तित्व के लिए बेचैन रहता है। क्या मुझे अपने एक अंग को सर्वोपरि समझते हुए शेष सभी अंगों को दरकिनार कर देना चाहिए?
परिवार में देखिए – माता, पिता, भाई, बहन, अगर चार सदस्यीय परिवार की बात करें तो भी यह बहुत संभव लगता है कि चार अलग सोच, समझ और विचार रखने वाले व्यक्ति एक परिवार में रहते हैं। और सभी एक-दूसरे को अपना मानते हुए अपनत्व की भावना रखते हैं। इसी तरह समाज भी है। तो क्या ज़रूरी है कि एक कवि, लेखक, कलाकार, नेता, विचारक या इतिहासकार या वक्ता आदि बनने के समय किसी एक ही विचारधारा का पोषण किया जाये?
इतिहास में ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जब एक व्यक्ति ने समय के परिवर्तन के साथ परिवर्तित विचार को अपनाया। इस सिलसिले में गुरुदेव रबींद्रनाथ का नाम उल्लेखनीय है। जब उनका उपन्यास गोरा प्रकाशित हुआ तो आलोचकों ने माना इस उपन्यास के माध्यम से रबींद्रनाथ हिन्दू पुनर्जागरण से विश्व बंधुत्व की ओर, कट्टर ब्राह्मणवाद से मानवतावाद की ओर उन्मुख हुए हैं। इस उपन्यास को उनकी अंतर्यात्रा एवं उनके विचार के परिवर्तन की यात्रा के रूप में देखा गया। हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध कवि महाप्राण निराला के बारे में चर्चा होती है कि उन्होंने परम्परावादी, छायावादी और फिर मुक्त छन्द या नये काव्य का अवगाहन किया। एक ओर वे राम की शक्तिपूजा और तुलसीदास कविताओं के लिए ख्यात होते हैं तो दूसरी ओर कुकुरमुत्ता के लिए भी। कुछ आलोचक मानते हैं कि जब निराला ने वामपन्थ का समर्थन करने वाले काव्य का सृजन किया तब उन्हें सिर-माथे पर बिठाया गया परन्तु जब उन्हीं निरालाजी ने छन्दबद्ध शाश्वत मूल्यों वाला काव्य रचा तो उन्हें महत्व नहीं दिया गया। करवट बदलते ही आलोचक मुंह फेरने लगे। ऐसे और भी उदाहरण हैं लेकिन ऐसा होता क्यों है?
इसी प्रकार हमारे एक मित्र प्रश्न उठाते हैं कि इन शब्दों के अर्थ या तो संकुचित हैं या गलत समझे जाते हैं। क्या एक वामपन्थी राष्ट्रवादी अर्थात् राष्ट्र का शुभचिंतक नहीं होता? या इसी प्रकार क्या एक राष्ट्रवादी या परम्परावादी अपने सृजन में लोकोन्मुख नहीं होता अर्थात् उसे जनवादी क्यों नहीं माना जाता? सब मठों ने अपने-अपने मुखौटे गढ़ लिये हैं और एक ही तरह के मुखौटे वालों को पहचानते हैं। यह सोच और विचार का संकुचन नहीं है तो क्या है?
अब यदि हर विचारधारा का गढ़ है; हर विचारधारा किसी विशेष प्रकार के मुखौटे को ही प्रश्रय देती है; हर विचारधारा दूसरी विचारधारा को अछूत समझती है; हर विचारधारा का अपना स्वार्थ और समय बदलने के साथ अपनी सत्ता है; हर विचारधारा अपने को ही अंतिम सत्य मानती है; आदि-आदि। तो इन परिस्थितियों में हर विचारधारा सत्य के विरुद्ध है। यह एक प्रकार का आतंकवाद है जो विभिन्न विचारधाराओं के खेमों से फैलाया जा रहा है। ऐसे में, किसी भी विचारधारा को अपनाने का औचित्य ही क्या है? यदि आप सत्ता लोलुप हैं या आपके सृजन के कुछ स्वार्थ हैं तो बेशक आप किसी एक की छत्रछाया में जा सकते हैं परन्तु ऐसा नहीं है तो कोई भी खेमा आपके लिए नहीं हो सकता।
नयी तकनीक के समय में हम थ्री-डी और फोर-डी की बात करने लगे हैं। तस्वीरें तक तीन-चार आयामी होने लगी हैं। और इधर, हम मनुष्य को एकआयामी बनाने की वकालत कर रहे हैं। जिसकी छठी इन्द्रिय भी जाग्रत हो जाती है और मन व कल्पनाओं के माध्यम से जो स्वयंसिद्ध बहुआयामी है, उस मनुष्य को एकआयामी, एकांगी बनाने के प्रयास में हम कहीं न कहीं समाज, समय और मानवता के दोषी ही ठहराये जाएंगे।
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