आज से 84 साल पहले भीमराव अंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच पुणे की यरवडा सेंट्रल जेल में एक विशेष समझौता हुआ था जिसे पूना एक्ट के नाम से जाना जाता है। इस समझौते से विधानसभाओं में दलितों के लिए सीटें सुरक्षित की गईं।
बात उस समय की है जब आज़ादी पाने का दौर चल रहा था। सभी भारतवासी आज़ादी पाने के लिए बेताब थे और अंग्रेज़ों को भारत से खदेड़ देना चाहते थे। अंग्रेजों को भी अंदाज़ा हो चुका था कि अब भारतीय आज़ाद होकर ही रहेंगे। ऐसे में आज़ाद भारत का संविधान बनाने के लिए ब्रिटेन ने 1930 से 1932 के बीच अलग-अलग पार्टियों के नेताओं को गोलमेज सम्मेलन के लिए बुलाया। जिसमें महात्मा गांधी पहली और आख़िरी बैठक में शामिल नहीं हुए थे।
दलितों को मिल सकती थी दोहरे मतदान की अनुमति
उस समय दलितों की सामाजिक दुर्दशा से तो अंग्रेज भी वाक़िफ थे। ऐसे में ब्रिटिश सरकार ने भारत का संविधान बनाने के लिए गोलमेज सम्मेलन का आयोजन करने का फैसला लिया। जब गोलमेज सम्मेलन की पहली बैठक हुई तो इस बैठक में डॉ. अम्बेडकर ने ब्रिटिश सरकार के उस कदम का समर्थन किया जिसमें दलितों के लिए अलग से निर्वाचक मंडल रखने की सलाह दी गई थी। तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री मैकडोनेल्ड ने मुस्लिम, ईसाई, एंग्लो इंडियन और सिखों के साथ ही दलितों के लिए भी अलग से निर्वाचक मंडल बनाने की सलाह दी। यह जनरल इलेक्टोरेट के तहत ही बनाया जाना था। जिससे दलितों को दोहरे मतदान की अनुमति मिल जाती। वो अपने उम्मीदवार के साथ ही सामान्य उम्मीदवार के लिए भी चुनाव में शामिल होते।
गांधी जी ने किया था विरोध
जब इस तरह का साम्प्रदायिक निर्णय हुआ तब गांधी जी यरवडा जेल में थे। तब गांधी जी ने इसका कड़ा विरोध करते हुए दलील दी कि इससे हिंदू समुदाय में विभाजन होगा। इस निर्णय के ख़िलाफ 20 सितम्बर 1932 को गांधी जी ने जेल में ही आमरण अनशन शुरु कर दिया। जब अनशन की वजह से गांधी जी की हालत बिगड़ने लगी तब महन मोदन मालवीय के प्रयासों से पूना में गांधी जी और डॉ. अम्बेडकर के बीच पूना पैक्ट समझौता हुआ। डॉ. अम्बेडकर ने समझौते के तहत दलितों के लिए अलग प्रतिनिधित्व की मांग को वापस ले लिया और संयुक्त निर्वाचन के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया। इस समझौते के तहत दलितों के लिए विधानमंडलों में सुरक्षित स्थान को 71 से बढ़ाकर 148 कर दिया गया।