न बसंत में प्यार जागा, न वेलेन्टाइन रूमानी हुआ
प्यार का मौसम आया, ख़बरों में भी खूब छाया। वैसे तो प्यार के लिए न समय की दरकार है और न ही कब-कहां-किससे होगा इसका पता होता है। किन्तु माह फरवरी का मौसम ही कुछ ऐसा होता है कि रूमानी होने का मन करता है। भारतीय सभ्यता में इस माह को बसंत का महीना कहा जाता है तो पाश्चात्य देशो में वेलेन्टाइन का दिन सप्ताह मुर्करर हुआ है। बसंत ऋतु के आने पर हमारे अंदर एक अलग ही आनंद, प्रेम प्रफुल्लित होता है। यह सब नपे-तुले तरीकों से होता आया है एक संस्कार, सभ्यता के परिवेश में, किन्तु जब से पाश्चात्य संस्कृति का हमारी संस्कृति से संगम हुआ इसका शोर-शराबा बढ़ता गया या यूं कहें कि खुले आम दिखाई देने लगा।
जिस प्रकार अन्य बातों के लिए अलग-अलग दिन मुर्करर है। उसी तर्ज पर प्यार का दिन भी तय हुआ, दिन से वीक बना, खूब शोर शराबा मचा, हर तरफ एक लहर सी उठ खड़ी हुई। डिजिटल वर्ल्ड में पहुंच चुके जमाने में ये बहुत फला-फूला। नतीजे, नितांत व्यक्तिगत प्रेम से हटकर रिश्ते भी डिजिटल हो गए, न इसमें कोई गंभीरता बची और न ही कोई रस। आज डिजिटल होते रिश्तों में प्यार के लिए एक कोमल अहसास की बजाए एक मैसेज, कुछ मोनो ‘गुलाब कली’ से लेकर ‘दिल’ वॉट्स अप कर हम अपने रिश्तों में कर्तव्यों को पूरा करते नज़र आते हैं। पहले शायद एक को ‘आई लव यू’ कहने के लिए ज़िन्दगी का बड़ा हिस्सा गुजर जाता था, आज वही हम कईयों को एक साथ मैसेज भेज देते हैं। कहने का तात्पर्य रिश्तों में कोई गंभीरता नज़र नहीं आती, सब दिखावा व मतलब परस्ती का होकर रह गया है।
ये रिश्ते दिल से नहीं दिमाग से होने लगे हैं जहां प्रेम ने अब ‘रिलेशनशिप’ की जगह ले ली है। ये स्टेटस सिंबॉल की तरह देखा जाने लगा है। किसी की ‘गर्लफ्रेंड या बॉयफ्रेंड’ न होना पिछड़ेपन की निशानी मानी जानी लगी है। उसको उन्हीं के दोस्त बड़ी हेय दृष्टि से देखते हैं। ऐसे में इस प्रकार के सबंध या तो मतलब के लिए या स्टेटस सिंबॉल की तरह ही देखे जाने लगे हैं।
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इन्हीं वजह से इस प्रकार के संबंधों में गिरावट सी आ गई है। सब इस बात को समझ चुके हैं। आज इसमें या तो फूहड़पन बचा है (जिसमें अलग-अलग संस्थाएं इसके खिलाफ कार्य करती दिखती हैं) या निरसता छा गई है। डिजिटल होना अच्छी बात है किन्तु रिश्ते डिजिटल नहीं होना चाहिए। रिश्तों में आत्मीयता का होना नितांत आवश्यक है, तब ये अनमोल होंगे।