कहते हैं कि प्रतिभा किसी की मोहताज नहीं होती वह कहीं न कहीं से बाहर आ ही जाती है। चाहे मुश्किलें कितनी भी हो, रास्ते आसान ना हो, वे अपना नाम बनाकर ही दम लेते हैं। इन्हीं प्रतिभाओं में एक नाम हरिशचंदर का भी है। हरिश चंदर एक ऐसी प्रतिभा का नाम है जिसनें झुग्गी से लेकर भारत की सबसे बड़ी प्रशासनिक सेवा तक का सफर तय किया है। पर आपको यह खबर जितनी सरल लगती है उतनी है नहीं। यह कहानी जिद और जुनून और सपने की है।
वर्ना आज बिरले ही ऐसे होते हैं जो झुग्गी बस्ती में रहते हुए आईएएस अफसर बन पातें है। उनका सपना या तो गरीबी में अपना दम तोड़ देती हैं या निराशा के गहरे समन्दर में डूब जाती है। लेकिन हिरश उनमें से नहीं है। अपनी कहानी बताते हुए हरीश कहते हैं कि उनकी मां दूसरों के घर-घर जाकर काम करती थी। पेट भर खाना मिलना तो नसीब की बात थी। ऐसे में कोई और होता तो शायद कभी का बिखर गया होता, लेकिन मै अपने सपने को लेकर डटा रहा।
आपको बता दें कि दिल्ली के 21 वर्षीय हरीश चंदर दिल्ली के ओट्रम लेन, किंग्सवे कैंप की झुग्गी नंबर 208 में रहने वाले थे और उन्होंने कुछ सालों पहले ही पहले ही प्रयास में आईएएस परीक्षा में 309वीं रैंक हासिल की है। उन्होंने एक समाचार पत्र को दिए गए अपने इंटरव्यू में कहा कि मैंने संघर्ष की ऐसी काली कोठरी में जन्म लिया, जहां हर चीज के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती थी। जब से मैंने होश संभाला खुद को किसी न किसी लाइन में ही पाया। कभी पीने के पानी की लाइन में तो कभी राशन की लाइन में।
यहां तक कि शौच जाने के लिए भी लाइन में लगना पड़ता था। झुग्गी में माहौल ऎसा होता था कि पढ़ाई कि बात तो दूर सुबह-शाम का खाना मिल जाए, तो मुकद्दर की बात मानी जाती थी। बाबा (पापा) दिहाड़ी मजूदर थे। कभी कोई काम मिल जाए तो रोटी नसीब हो जाती थी, नहीं तो घर पर रखे चने खाकर सोने की हमें सभी को आदत थी।
झुग्गी में जहां पीने को पानी मयस्सर नहीं होता वहां लाइट की सोचना भी बेमानी है। झोपड़ी की हालत ऐसी थी कि गर्मी में सूरज, बरसात में पानी और सर्दी में ठंड का सीधा सामना हुआ करता था। मेरे मां-बाबा पूरी तरह निरक्षर हैं, लेकिन उन्होंने मुझे और मेरे तीन भाई-बहनों को पढ़ाने की हर संभव कोशिश की। लेकिन जिस घर में दो जून का खाना जुटाने के लिए भी मशक्कत होती हो, वहां पढ़ाई कहां तक चल पाती। घर के हालात देख मैं एक किराने की दुकान पर काम करने लगा। लेकिन इसका असर मेरी पढ़ाई पर पड़ा। दसवीं में मैं फेल होते-होते बचा।
उस दौरान एक बार तो मैंने हमेशा के लिए पढ़ाई छोड़ने की सोच ली। लेकिन मेरी मां, जिन्हें खुद अक्षरों का ज्ञान नहीं था, वो जानती थीं के ये अक्षर ही उसके बेटे का भाग्य बदल सकते हैं। मां ने मुझे पढ़ाने के लिए दुकान से हटाया और खुद दूसरों के घरों में झाडू-पोंछा करने लगी।
उनके कमाए पैसों को पढ़ाई में खर्च करने में भी मुझे एक अजीब सा जोश आता था। मैं एक-एक मिनट को भी इस्तेमाल करता था। मेरा मानना है कि आपको अगर किसी काम में पूरी तरह सफल होना है तो आपको उसके लिए पूरी तरह समर्पित होना पड़ेगा। एक प्रतिशत लापरवाही आपकी पूरी जिंदगी के लिए नुकसानदायक साबित हो सकती है।
हरिश ने आगे कहा कि मेरी सबसे बडी प्रेरणा रही है, लेकिन मैं जिस एक शख्स से सबसे ज्यादा प्रभावित हूं और जिसने मुझे झकझोर कर रख दिया, वह है गोविंद जायसवाल। वही गोविंद जिसके पिता रिक्शा चलाते थे और वह 2007 में आईएएस बना।
इस तरह उपजा आईएएस बनने का ख्याल
एक अखबार में गोविंद का इंटरव्यू पढ़ने के बाद मुझे लगा कि अगर वह आईएएस बन सकता है तो मैं क्यूं नहीं मैं बारहवीं तक यह भी नहीं जानता था कि आईएएस होते क्या हैं लेकिन हिंदू कॉलेज से बीए करने के दौरान मित्रों के जरिए जब मुझे इस सेवा के बारे में पता चला, उसी दौरान मैंने आईएएस बनने का मानस बना लिया था। परीक्षा के दौरान राजनीतिक विज्ञान और दर्शन शास्त्र मेरे मुख्य विषय थे।
विषय चयन के बाद दिल्ली स्थित पतंजली संस्थान के धर्मेंद्र सर ने मेरा मार्गदर्शन किया। उनकी दर्शन शास्त्र पर जबरदस्त पकड़ है। उनका पढ़ाने का तरीका ही कुछ ऐसा है कि सारे कॉन्सेप्ट खुद ब खुद क्लीयर होते चले जाते हैं। उनका मार्गदर्शन मुझे नहीं मिला होता तो शायद मैं यहां तक नहीं पहुंच पाता।
तो देखा दोस्तों कैसे न हारने की जिद ने एक आम लड़के को आईएएस बना बना दिया। इसलिए मुश्किलें चाहे जितनी हो, कभी हालांतों के आगे घुटने नहीं टेकना चाहिए। अगर आपके अंदर भी जिद और जूनून हैं तो यकीन मानिए। अगले हरीशचंदर आप ही हैं।