डॉ. एम. विश्वेश्वरैया : पहला इंजीनियर जिसने घरों तक पहुंचाया पानी
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नदियों का पानी तो हर किसी के घर में नलों के ज़रिए आता ही होगा। लेकिन क्या उस पानी का उपयोग करते वक्त कभी आपके मन में ये ख़्याल आया कि इस पानी को आपके घर तक पहुंचाने का आइडिया किसका रहा होगा? अग़र नहीं, तो चलिए हम आपको बताते हैं। ये आइडिया था एम. विश्वेश्वरैया का। आज इंजीनियर्स डे है और इसी के चलते यहां हम आपको बताने जा रहे हैं देश के पहले इंजीनियर यानी एम. विश्वेश्वरैयर की कहानी…
एम. विश्वेश्वरैया का पूरा नाम मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया था। उनका जन्म मैसूर के ’मुद्देनाहल्ली’ में 15 सितम्बर 1861 को हुआ था। बहुत ही ग़रीब परिवार में जन्मे विश्वेश्वरैया का बचपन बहुत अभावों में बीता। विश्वेश्वरैया जब केवल 14 साल के थे तभी उनके पिता की मौत हो गई। लेकिन पढ़ाई के लिए वे जुनूनी थी जिसके चलते उन्होंने पिता की मौत के बाद भी पढ़ाई को जारी रखा। ये पढ़ाई के प्रति उनका जुनून ही था जो उन्हें स्कॉलरशिप मिली और साथ-साथ उन्होंने पूरे मुम्बई विश्वविद्यालय में टॉप करके इंजीनियरिंग की डिग्री ली।
कहलाए कर्नाटक के भागीरथ
इसी सफलता के आधार पर उन्हें मुम्बई में असिस्टेंट इंजीनियर की पोस्ट मिली। उस समय ब्रिटिश शासन था इसलिए ज़्यादातर ऊंचे पदों पर अंग्रेज़ों की ही नियुक्ति होती थी। उस समय उन्होंने अपनी प्रतिभा से बड़े-बड़े अंग्रेज़ इंजीनियरों को भी मात दे दी थी। अपने इस पद पर रहते हुए उन्होंने सबसे पहली सफलता प्राकृतिक जल स्त्रोतों से घरों में पानी पहुंचाने की व्यवस्था करना और गंदे पानी की निकासी के लिए नाली और नालों की उचित व्यवस्था करके प्राप्त की। पहले ही प्रयास में उन्होंने बैंगलोर, पूना, मैसूर, बड़ौदा, कराची, हैदराबाद, ग्वालियर, इंदौर, कोल्हापुर, सूरत, नासिक, नागपुर, बीजापुर, धारवाड़ सहित कई शहरों को हर तरह के जल संकट से मुक्त करा दिया। उनकी उपलब्धियों के चलते उन्हें कर्नाटक का भागीरथ भी कहा जाता है।
दुनियाभर ने फॉलो किया विश्वेश्वरैया का प्लान
जब वह केवल 32 वर्ष के थे, तब उन्होंने सिंधु नदी से सुक्कुर कस्बे को पानी की पूर्ति भेजने का प्लान तैयार किया जो सभी इंजीनियरों को पसंद आया। सरकार ने सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त करने के उपायों को ढूंढने के लिए समिति बनाई। इसके लिए मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया ने एक नए ब्लॉक सिस्टम को इजाद किया। उन्होंने स्टील के दरवाजे बनाए जो कि बांध से पानी के बहाव को रोकने में मदद करते थे। उनके इस सिस्टम की प्रशंसा ब्रिटिश अधिकारियों ने खुलकर की। आज यह सिस्टम पूरे विश्व में प्रयोग में लाया जा रहा है। विश्वेश्वरैया ने मूसा व इसा नाम की दो नदियों के पानी को बांधने के लिए भी प्लान तैयार किए। इसके बाद उन्हें मैसूर का चीफ इंजीनियर नियुक्त किया गया। 1912 में विश्वेश्वरैया को मैसूर के महाराजा ने दीवान यानी मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया।
दूसरों को भी शिक्षित करने में दिया योगदान
उन्होंने अपने कार्यकाल में मैसूर राज्य में स्कूलों की संख्या को 4,500 से बढ़ाकर 10,500 कर दिया। इसके साथ ही विद्यार्थियों की संख्या भी 1,40,000 से 3,66,000 तक पहुंच गई। मैसूर में लड़कियों के लिए अलग हॉस्टल तथा पहला प्रथम श्रेणी कॉलेज (महारानी कॉलेज) खुलवाने का श्रेय भी विश्वेश्वरैया को ही जाता है। उनके ही अथक प्रयासों के चलते मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई जो देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। उन्होंने देश में पहले से मौजूद उद्योगों जैसे सिल्क, संदल, मेटल, स्टील आदि को जापान व इटली के विशेषज्ञों की मदद से ओर अधिक विकसित किया।
हीराकुंड बांध भी है इन्हीं की देन
ऑटोमोबाइल तथा एयरक्राफ्ट के क्षेत्र में फैक्टरियों की शुरूआत देश में करना उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है। बैंगलूर स्थित हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स तथा मुंबई की प्रीमियर ऑटोमोबाइल फैक्टरी इसका उदाहरण है। 1947 में वह आल इंडिया मैन्युफैक्चरिंग एसोसिएशन के अध्यक्ष बने। उड़ीसा की नदियों की बाढ़ की समस्या से निजात पाने के लिए उन्होंने एक रिपोर्ट पेश की। इसी रिपोर्ट के आधार पर हीराकुंड तथा अन्य कई बांधों का निर्माण हुआ।
विश्वेश्वरैया की दूरदृष्टि से जुड़ा किस्सा
यह उस समय की बात है जब भारत में अंग्रेजों का शासन था। खचाखच भरी एक रेलगाड़ी चली जा रही थी। यात्रियों में अधिकतर अंग्रेज थे। एक डिब्बे में एक भारतीय मुसाफिर गंभीर मुद्रा में बैठा था। सांवले रंग और मंझले कद का वह यात्री साधारण वेशभूषा में था इसलिए वहां बैठे अंग्रेज उसे मूर्ख और अनपढ़ समझ रहे थे और उसका मजाक उड़ा रहे थे। पर वह व्यक्ति किसी की बात पर ध्यान नहीं दे रहा था। अचानक उस व्यक्ति ने उठकर गाड़ी की जंजीर खींच दी। तेज रफ्तार में दौड़ती वह गाड़ी तत्काल रुक गई। सभी यात्री उसे भला-बुरा कहने लगे। थोड़ी देर में गार्ड भी आ गया और उसने पूछा, ‘जंजीर किसने खींची है?’ उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, ‘मैंने खींची है।’ कारण पूछने पर उसने बताया, ‘मेरा अनुमान है कि यहां से लगभग एक फर्लांग की दूरी पर रेल की पटरी उखड़ी हुई है।’ गार्ड ने पूछा, ‘आपको कैसे पता चला?’ वह बोला, ‘श्रीमान! मैंने अनुभव किया कि गाड़ी की स्वाभाविक गति में अंतर आ गया है।पटरी से गूंजने वाली आवाज की गति से मुझे खतरे का आभास हो रहा है।’ गार्ड उस व्यक्ति को साथ लेकर जब कुछ दूरी पर पहुंचा तो यह देखकर दंग रहा गया कि वास्तव में एक जगह से रेल की पटरी के जोड़ खुले हुए हैं और सब नट-बोल्ट अलग बिखरे पड़े हैं। दूसरे यात्री भी वहां आ पहुंचे। जब लोगों को पता चला कि उस व्यक्ति की सूझ-बूझ के कारण उनकी जान बच गई है तो वे उसकी प्रशंसा करने लगे। गार्ड ने पूछा, ‘आप कौन हैं?’ उस व्यक्ति ने कहा, ‘मैं एक इंजीनियर हूं और मेरा नाम है डॉ. एम. विश्वेश्वरैया।’ नाम सुन सब स्तब्ध रह गए। दरअसल उस समय तक देश में डॉ. विश्वेश्वरैया की ख्याति फैल चुकी थी। लोग उनसे क्षमा मांगने लगे। डॉ. विश्वेश्वरैया का उत्तर था, ‘आप सब ने मुझे जो कुछ भी कहा होगा, मुझे तो बिल्कुल याद नहीं है।’
101 की उम्र में कहा दुनिया को अलविदा
देश की सेवा ही विश्वेश्वरैया की तपस्या थी। 1955 में उपलब्धियों के लिए उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया। जब वह 100 वर्ष के हुए तो भारत सरकार ने डाक टिकट जारी कर उनके सम्मान को बढ़ाया। 101 वर्ष की दीर्घायु में 14 अप्रैल 1962 को उनका स्वर्गवास हो।
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