6 सितंबर : पर्दे पर आया था राज कपूर का चार्ली चैपलिन ड्रीम ‘श्री 420’
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1925 में चार्ली चैपलिन की एक फ़िल्म आई थी ’द गोल्ड रश’। रूस की भुखमरी की कहानी हंसते हुए बताई थी उन्होंने। चार्ली चैपलिन का अंदाज़ ही था जो ऐसे मुद्दे को भी ह्यूमर के साथ दर्शकों के सामने पेश कर सकता था।
ख़ैर, आइए बात करते हैं 1955 में आई राजकपूर अभिनीत ’श्री 420’ की। 6 सितंबर का ही का वो दिन था जब ये राज कपूर का सपना पर्दे पर सच हुआ था। हम अगर ढूंढें तो ’द गोल्ड रश’ और ’श्री 420’ में बहुत समानताएं मिल जाएंगी। कह सकते हैं कि ’श्री 420’ राज कपूर की ’द गोल्ड रश’ थी। ठीक ’चार्ली चैपलिन’ वाले अंदाज़ में बनाई ये फ़िल्म केवल इतिहास में दर्ज हो जाने वाली बात नहीं थी। ये वो सिनेमा है जो हर समय में प्रासंगिक है। इस फ़िल्म का वो मशहूर गाना याद कीजिए ’मेरा जूता है जापानी’, ये गुनगुनाने के साथ आपको हमेशा याद आएगा कि कैसे हम ऊपर से नीचे तक विदेशी चीज़ों में ढंके हुए हैं पर दूसरा पहलू ये कि हम आज भी दिल से हिंदुस्तानी हैं। इस फ़िल्म में घटा हर घटनाक्रम आपको ये बताएगा कि कैसे इस देश का अमीर दिनों-दिन अमीर और ग़रीब दिनों-दिन ग़रीब हो रहा है। ये तब के हालात भी थे, आज के भी हैं।
एक ईमानदार ’राज’ जब बंबई जैसे महानगर में काम की तलाश में आता है तो लगता है जैसे सारा शहर ही ये सिखाने में उतारू है कि ’ईमानदारी सबसे बड़ी कमज़ोरी है’। राज ये सीखता है कि ’श्री 420’ हुए बिना अमीर होना मुश्किल है।
परिस्थितियां उसको वो सब सिखा जाती हैं जो एक सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं। लेकिन समाज कितना दोगला है कि ये हर तरह से ’राज’ को वही सिखा रहा है जो खुले में उसे स्वीकार नहीं। ’श्री 420’ की बात हो तो हम गाने गुनगुनाने लगते हैं। एक अच्छा निर्देशक संगीत की अच्छी समझ भी रखता है तो फ़िल्म इतिहास रचती है।
इस फ़िल्म में हर शेड के गाने मौजूद हैं, ईचक दाना बीचक दाना, मेरा जूता है जापानी, मुड़-मुड़ के न देख, दिल का हाल सुने दिलवाला, रमइया वस्तावैया और प्यार हुआ इक़रार हुआ। शैलेंद्र और राजकपूर, ये अगर साथ हों तो गाने भी कालजयी हो जाते थे।
नरगिस और राजकपूर के बीच फ़िल्माया गया ’प्यार हुआ इक़रार हुआ’ गीत आज हर रूमानियत को पीछे छोड़ता है।
कमाल का गीत-संगीत, कमाल के अदाकार और उतना ही लाजवाब निर्देशन, इस गीत को जैसे अमर कर गए।
अग़र आपको याद हो तो इस गीत में कुछ बच्चे नज़र आए थे, ये बच्चे रणधीर, रितु और ऋषि। जी हां, राजकपूर ने अपने बच्चों को भी इस इतिहास का साक्षी बनाया था। इस फ़िल्म ने केवल भारत में ही नहीं विश्व में अपनी जगह बनाई। आज भी रूस में न जाने कितने लोग राजकूपर-नरगिस के मुरीद हैं और ’मेरा जूता है जापानी’ गुनगुनाते मिल जाते हैं। अवॉर्ड्स से ’श्री 420’ को तौल पाना बहुत मुश्किल है। ये ऐसी फ़िल्म है जो सम्मानों की मोहताज नहीं।
श्री 420 का ’राज’ फिर आया पर्दे पर 1992 में ’राजू’ बनकर। ये फ़िल्म थी अज़ीज़ मिर्ज़ा की ’राजू बन गया जेन्टलमैन’। हर दौर में एक राजू आता है मुम्बई अपने सपनों की आजमाइश के लिए।
By Anurag Thakur
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