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100 प्रतिशत एफडीआई। सुनने और पढ़ने में बहुत अच्छा लगता है कि हम वैश्विक जगत में और खुले आसमान के नीचे अपनी अर्थव्यवस्था ला रहे हैं, चारों और विकास के मार्ग खोल रहे हैं। विदेशी पूंजी पर इतना विश्वास कि वे आएंगे और हमें धन-धान्य से भरपूर कर जाएंगे। जैसे हमारी सभी समस्याओं का निदान यही है। यह सब भी वह सरकार कर रही है जो हमेशा से एफडीआई को 100 प्रतिशत करने का विरोध जताती रही है, विदेशी को नकार कर देशी राग अलापती रही है, अचानक से विदेश व विदेशी पर इतनी मेहरबान कैसे हो गई? हमारे देश की पूंजी अचानक ’घर की मुर्गी दाल बराबर’ कैसे हो गई? हमारे माननीय प्रधानमंत्री जब से सत्ता में आए हैं, सरकार को तो जैसे पंख लग गए हैं, इस देश की किस्मत का पिटारा कहीं विदेश में स्थित है, देश व देशवासियों को अब कुछ करने की आवश्यक्ता ही नहीं, विदेश से खजाना आने वाला है और हम सबकी किस्मत छड़ी घुमाते ही बदल जाएगी।
सरकारी आंकड़ों में देश की अर्थव्यवस्था अच्छी है किंतु यदि देश व देशवासियों पर नज़र डालें तो देशभर में सन्नाटा है। कहीं भी कोई उत्साह का माहौल नहीं है। सभी की जुबां पर आता है, ’’पता नहीं कब तक ठीक होगा बाजार’’। सरकार द्वारा बड़ी-बड़ी योजनाओं का हल्ला, जिसके प्रचार-प्रसार पर ही करोड़ों रुपए खर्च कर दिए जाते हैं। निश्चित तौर पर योजनाओं से पैसा बाहर आता है किंतु आमजन की जगह सरकारी तंत्रों में ही उलझकर रह जाता है। सरकार खुश, सरकारी तंत्र खुश। गायब है तो आम व्यक्ति की खुशियां।
सरकार द्वारा देश से, देश वासियों से, उनकी काबिलियत से ध्यान हटाकर विदेश की तरफ ही फोकस करना आश्चर्यचकित करता है और वह भी तब जब सरकार खुद ही स्वदेशीकरण की पक्षधर रही हो। विश्व मुखिया बनने के सपने देखने को ललायित सरकार को इस बात का भान ही नहीं हो रहा है कि अपने व्यवसाय के लिए आ रही ये कम्पनियां कैसे इस देश का भला कर सकेंगी? जबकि सरकार अपनी कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति से, सरकारी तंत्र की लालफीताशाही के होते, न्यायिक प्रक्रियाओं में आई गिरावट के साथ इस देश की कम्पनियों से ही आम जनता को नहीं बचा पा रही है तो उन विदेशी कम्पनियों से कैसे बचा पाएगी। विदेशी कम्पनियों का तो सरकार बाल भी बांका नहीं कर पाएगी। इसके कई उदाहरण हम गत वर्षों में देख चुके हैं; यूनियन कार्बाइट, मैगी, पेप्सी-कोला इत्यादि। आम उपभोक्ता का संरक्षण कैसे कर पाएगी यह सरकार; इस पर कुछ भी फोकस नहीं है। कहीं हम ज्यादा पाने के चक्कर में जो है वह भी न खो दें। यह देश गुलामी की एक लम्बी त्रासदी झेल चुका है। कहीं फिर न हो जाएं हम गुलाम।
सरकार विदेश व विदेशी कम्पनियों की जगह यदि देश की और देश में उपलब्ध साधनों की तरफ ज्यादा भरोसा दिखाए तो शायद हम अपनी आतंरिक स्थिति ज्यादा अच्छे से मजबूत कर सकते हैं। यदि हम अपने सभी तंत्रों को ठीक करें तो ये हमारे लिए ज्यादा असरकारक होगा। हम विश्व विजेता न सही, कम से कम अपना घर तो सुरक्षित और मजबूत कर ही सकेंगे। देश में सुकून और खुशियों का माहौल तो बना ही सकेंगे।