हालही में आमिर खान का एक कमेंट आया और सब तरफ फिर से भूचाल आ गया। जैसे कोई बहुत बड़ा बम फट गया हो। सब तरफ फिर से अचानक असहिष्णुता का मुद्दा गरमा गया। एक कार्यक्रम में चर्चा के दौरान कोई बात कही गई जो एक सामान्य बात हो सकती थी किंतु उस पर पूरे मीडिया जगत ने बवाल मचा दिया। अब सरकार की बारी है। सरकार और सरकारी नुमाइंदे भी इस पर तीखी प्रतिक्रिया देने से नहीं चूकेंगे। जितनी बड़ी बात नहीं थी उतनी उसे बना दी गई। तिल का ताड़ बना दिया गया। पूर्व में भी चाहे शाहरुख खान का बयान हो या कोई पुरस्कार वापस करने वाले साहित्यकार, फिल्मकार का बयान हो। सभी का हश्र यही हुआ। पुरस्कार वापसी में शायद राजनीति हो या न हो किंतु उसके बाद उस बात की राजनीति जरुर हुई।
ये इन दिनों असहिष्णुता का दानव अचानक दिखाई देने लगा। दिन-प्रतिदिन उसका आकार बढ़ता जा रहा है। आखिर क्यों? निश्चित तौर पर यह देश के लिए, उसकी प्रगति के लिए घातक है। किंतु यह सभी जानते-बूझते राजनीतिक नफा-नुकसान का खेल चल रहा है, जिसके डायरेक्टर पर्दे के पीछे से खेल को बखूबी अंजाम दे रहे हैं और पर्दे के कलाकार उनके खेल में जाने-अनजाने शामिल हैं। जाने-अनजाने का मतलब साफ है, जरुरी नहीं कि सभी इस राजनीति के साथ हैं। साहित्यकार, फिल्मकार जो कभी राजनीतिक मंचों से प्रभावित नहीं थे, वे आज इसके शिकार हैं। मीडिया तो पूरे तौर पर समझ-बूझ कर इस खेल में शामिल है। ये तो है दृश्य जो चल रहा है। समझदारों को भी देश हित में समझना चाहिए और साथ ही अनजानेपन के शिकार इन कला-पुत्रों को समझदारी दिखाना चाहिए।
विरोधी पार्टियों पर ढीकरा फोड़ने वाले सभी लोगों को एक बात यह भी सोचना चाहिए कि क्या ये खेल वाकई विरोधी पार्टियों द्वारा खेला जा रहा है? क्या आज के विरोधी इतने सशक्त हैं कि वे इस तरह कला-पुत्रों को समझाकर साथ ले सकते हैं और राजनीति कर सकते हैं? क्या यह सारा खेल सरकार का खेला हुआ नहीं हो सकता? सरकार का इस प्रकार की समस्या पर क्या स्टैण्ड है? इस तरह के तमाम प्रश्नों पर एक बार जरुर विचार किया जाना चाहिए। प्रचंड बहुमत वाली सरकार भाजपा की है। प्रधानमंत्री के पद पर नरेंद्र मोदी विराजमान हैं। भारतीय जनता पार्टी हिंदुत्व के मुद्दे पर कट्टरवादी पक्षधर है। नरेंद्र मोदी भी स्वयं कट्टरवादी होकर तानाशाही तरीके से अपने कार्य को अंजाम देते हैं। पार्टी का स्टैण्ड है, हिंदुत्व, हिंदु राष्ट्र की स्थापना (उसके लिए चाहे वे देश भर में दंगे-फसाद करवा दें) आरक्षण के घोर विरोधी (ये अलग बात है कि बिहार चुनाव में आरक्षण के पक्ष में वोटों के लिए बोलना पड़ा) कश्मीर में धारा 370 को हटाना, विदेशी निवेशकों के लिए एफडीआई में 50 प्रतिशत से कम तक की ही परमिशन के हिमायती जैसे मुद्दों पर बरसों से स्पष्ट स्टैण्ड है। सरकार में आने के बाद उनकी इन सबके लिए झटफटाहट स्पष्ट देखी जा सकती है। आते ही कश्मीर में धारा 370 पर उतावलापन दिखाकर मात खाई, हिंदुत्व व हिंदु राष्ट्र व स्वदेशीकरण के लिए लगातार प्रयासरत हैं। सोशल मीडिया पर इनके लगातार अनगिनत पोस्ट इसका प्रमाण हैं। आरक्षण पर भी सोशल मीडिया पर सतत प्रक्रिया चल रही है। ये सभी कहीं न कहीं सरकार की मंशा को स्पष्ट करते हैं। हर संस्था का भगवाकरण करना आग में घी का काम करता है। ऐसे में असहिष्णुता का वायरस पैदा नहीं होगा तो क्या होगा? जिसकी जनक सरकार है। इस क्रिया की प्रतिक्रिया भी वैसी हुई जैसा सरकार चाहती थी, इन मुद्दों को गरमाना…वह हो चुका। अब इसके बाद प्रतिक्रिया पर जो पलट प्रतिक्रिया है, उसे भी देख लें। यदि इस खेल की जनक सरकार नहीं होती तो निश्चित तौर पर इस प्रकार की बात उठने पर सरकार पहले ऐसे पुरस्कृत अच्छे लोगों को बुलाकर उनसे बात करती, उनको बैठाकर समझाया जाता। किंतु सरकार ने ऐसा न कर उलट उन पर तीखी प्रतिक्रिया देना शुरु की। अनर्गल बातों को अनर्गल बयानों को आगे बढ़ाने में मदद की। इसे कहते हैं आग को और हवा देना। ऐसे सभी प्रकार के कृत्य इस ओर इशारा करते हैं कि इस खेल की असली डोर सरकार के हाथ में है जिसे वो बखूबी खेल रही है और हमारे गैर-राजनीतिक सम्माननीय लोग जाने-अनजाने इस खेल का हिस्सा बने हैं। जो भी हो, देश हित में नहीं है। देश के विकास को ये लंबे समय तक रुकावटें देने वाला साबित होगा।
सुमेश खंडेलवाल
प्रधान संपादक